राम सनेही जद कहे , रटे राम ही राम | जीवन अर्पण राम को, राम करे सब काम || अमृत 'वाणी'

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Wednesday, May 6, 2009

रामस्नेही सम्प्रदाय

रामस्नेही सम्प्रदाय :

सुप्रसिद्ध सन्त सन्तदास की शिष्य परम्परा में सन्त दरियाबजी तथा सन्त रामचरण जी हुए। सन्त रामचरण जी शाहपुरा की रामस्नेही शाखा के प्रवर्तक थे, जबकि सन्त दरियाबजी रैण के रामस्नेही शाखा के थे।

सन्त दरियाबजी :

इनका जन्म जैतारण में १६७६ ई० में हुआ था। इनके गुरु का नाम सन्तदास था। इन्होंने कठोर साधना करने के बाद अपने विचारों का प्रचार किया। उन्होंने गुरु को सर्वोपरि देवता मानते हुए कहा कि गुरु भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति के समस्त साधनों एवं कर्मकाण्डों में इन्होंने राम के नाम को जपना ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया तथा पुनर्जन्म के बन्धनों से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन माना।

उन्होंने राम शब्द में हिन्दू - मुस्लिम की समन्वय की भावना का प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि "रा"शब्द तो स्वयं भगवान राम का प्रतीक है, जबकि 'म' शब्द मुहम्मद साहब का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि गृहस्थ जीवन जीने वाला व्यक्ति भी कपट रहित साधना करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसके लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना आवश्यक नहीं है। दरियाबजी ने बताया है कि किस प्रकार व्यक्ति निरन्तर राम नाम का जप कर ब्रह्म में लीन हो सकता है।

सन्त दरियाबजी ने समाज में प्रचलित आडम्बरों, रुढियों एवं अंधविश्वासों का भी विरोध किया उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा, स्नान, जप, तप, व्रत, उपवास तथा हाध में माला लेने मात्र से ब्रह्म को प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे मूर्ति पूजा तथा वर्ण पूजा के घोर विरोधी थे। उन्होंने कहा कि इन्द्रिय सुख दु:खदायी है, अत: लोगों को चाहिए कि वे राम नाम का स्मरण करते रहें। उनका मानना था कि वेद, पुराण आदि भ्रमित करने वाले हैं। इस प्रकार दरियाबजी ने राम भक्ती का अनुपम प्रचार किया।

सन्त रामचरण :

सन्त रामचरण शाहपुरा की रामस्नेही की शाखा के प्रवर्तक थे। उनका जन्म १७१९ ई० में हुआ था। पहले वे जयपुर नरेश के मन्त्री बने, परन्तु बाद में इन्होंने अचानक सन्यास ग्रहण कर लिया तथा सन्तदास के शिष्य महाराज कृपाराम को उन्होंने अपना गुरु बना लिया। इन्होंने कठोर साधना की और अन्त में शाहपुरा में बस गये। इन्होंने यहाँ पर मठ स्थापित किया तथा राज्य के विभिन्न भागों में रामद्वारे बनवाये। इस प्रकार वे अपने विचारों तथा राम नाम का प्रचार करते रहे।

सन्त रामचरण ने भी मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु के महत्व पर अधिक बल दिया। उनके नाम को जपने से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने सत्संग पर विशेष बल दिया। उनका मानना था कि जिस प्रकार गंगा के पानी में मिलने के बाद नालों का गन्दा पानी भी पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार मोहमाया में लिप्तव्यक्ति भी साधुओं की संगति से निर्मल हो जाता है।

रामचरण जी ने भी मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, बहुदेवोपासना कन्या विक्रय, हिन्दू - मुस्लिम भेदभाव तथा साधुओं का कपटाचरण आदि बातों का जोरदार विरोध किया। उनका मानना था कि मंदिर तथा मस्जिद दोनों भ्रम हैं तथा पूजा - पाठ, नमाज एवं तीर्थ यात्रा आदि ढोंग हैं, अर्थात् धार्मिक आडम्बर हैं। वे भांग, तम्बाकू एवं शराब के सेवन तथा मांस - भक्षण के भी विरोधी थे।


रामस्नेही सन्तों का प्रभाव :

रामस्नेही सन्तों ने राम - नाम के पावन मन्त्र का प्रचार करते हुए लोगों को राम की भक्ति का सन्देश पहुँचाया। उनकी शिष्य परम्परा के विकास के साथ - साथ स्थान - स्थान पर रामद्वारों की स्थापना होती गई। रामस्नेही साधु इन्हीं रामद्वारों में निवास करते हैं तथा राम नाम को जपते रहते हैं। वे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। हिन्दू परिवार के युवकों तथा बच्चों को दीक्षा देकर शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। ये मिट्टी का बर्तन में भोजन करते हैं और लकड़ी के कमण्डल से पानी पीते हैं।

राम - स्नेही मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, अपितु गुरुद्वारे में अपने गुरु का चित्र अवश्य रखते हैं और प्रात:काल तथा सायंकाल को गुरुवाणी का पाठ करते हैं। रामचरण सम्प्रदाय में धार्मिक निष्ठा, अनुशासन, सत्य निष्ठा तथा नैतिक आचरण पर विशेष बल दिया जाता है। वे मांस - भक्षण नहीं करते हैं, सिर्फ शाकाहारी भोजन करते हैं। गुरुवाणी को बड़े प्रेम से गाया जाता है। इनकी शाखाएँ अलग - अलग होते हुए भी इनका मूल स्रोत एक समान है। अत: सभी शाखाओं, व्यवस्था तथा आचार - व्यवहार में एकरुपता दिखाई देती है।

2 comments:

  1. सतगुरू सुखरामजी महाराजकी जानकारी.

    'केवल ज्ञान विज्ञान'यह आदिसे(जबसे सृष्टी निर्माण हुई)है। ब्रम्हा,विष्णू,महादेव,शक्ती,शेष सब केवलका आधार लेके इस सृष्टीमे अपना अपना कार्य पूरा कर रहे है। हर युगमे'आदि सतगुरू'आते है,और यह केवलका ज्ञान जिवोंतक पहुचाते है। उन्हे भवसागरसे निकालकर अमरलोकमे लेके जाते है।
    ऎसेही इस कलजुगमे "आदि सतगुरू सुखरामजी महाराज"राजस्थानमे(भरतखंडमे)'जोधपुर'जिलामे बिराही'गावमे ब्राम्हण कुलमे सन १८७३ मे आये। गुरू महाराजने गर्भवासमे जनम नही लिया,बल्की "सुखराम"नामके बालकके देहमे (जब बालकका देह छुट गया) सतस्वरुप (अमरलोकसे) देशसे आकर प्रवेश करके देह धारण किया। गुरूमहाराजने अखंडीतरुपसे अठरा साल तक एक पत्थरपर बैठकर केवलकी भक्ती (रामनाम का भेदसहित सुमिरण) की। नब्बे साल तक रहकर सव्वा लक्ष जीवोंको परम मोक्ष मे लेके गये। अभीभी उनका सत्ता रुपसे वही कार्य शुरु है।

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