राम सनेही जद कहे , रटे राम ही राम | जीवन अर्पण राम को, राम करे सब काम || अमृत 'वाणी'

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Sunday, May 31, 2009

हाड़ी रानी स्मृति समारोह का आगाज आज

सलूम्बर, २० मई (प्रास.) । वीरांगना हाड़ीरानी गौरव संस्थान की ओर से हाड़ी रानी स्मृति समारोह-२००९ का शुभारंभ गुरूवार को श्रीराम स्नेही सम्प्रदाय शाहपुरा के आचार्य रामदयाल महाराज के सानिध्य में होगा ।
संस्थान अध्यक्ष एवं पालिकाध्यक्ष भगवती लाल सेवक ने बताया कि महाराज के आदर सत्कार में गुरूवार शाम को ६ बजे गांधी चौक से शोभायात्रा निकाली जाएगी । तत्पश्चात राजमहल प्रांगण में स्थित हाड़ी के स्मारक पर पुष्पांजलि कार्यक्रम व महाराज का आशीवदन होगा साथ ही कवि माधव दरक, प्रकाश नागौरी व प्रहलाद पारिख काव्य पाठ करेंगे ।
समारोह में औंकार सिंह लखावत, के.एस. गुप्ता, रघुवीर मीणा, गुलाब चन्द कटारिया भी उपस्थित होंगे ।

Tuesday, May 19, 2009

ईश्वर की मार में भी प्यार होता है

नाथद्वारा, ८ अक्टू. (प्रासं) । फौज स्थित रामद्वारा में चल रहे चातुर्मास सत्संग के दौरान युवा संत उत्तमराम शास्त्री ने कहा कि ईश्वर की मार में भी प्यार होता है वो जिसे मारते है, उसे तारते भी है।
शास्त्री ने कंस का उदाहरण देते हुए कहा कि कंस वैरभाव से कृष्ण का विचार करता था फिर भी उसके मन में कृष्ण का वास तो था इसीलिए उसका उद्धार हो गया। शास्त्री ने कहा कि ईश्वर से संबंध कायम करने वालों को सब कुछ मिलता है। इस दौरान कंस वध की झांकी मय प्रस्तुति दी गई। भक्त मदन कुमावत ने बताया कि शुक्रवार को हायर सैकण्डरी स्कूल प्रांगण में रूकमणी विवाह का भव्य कार्यक्रम आयोजित होगा।
संतों का समागम १२ को
धर्मनगरी में १२ तारीख को रामस्नेही संप्रदाय के संतों का समागम होगा। १२ तारीख को रात्रि ८ बजे भागवत महापुराण की पूर्णाहुति होगी वही सोमवार को प्रात: ९ बजे हवन होगा तत्पश्र्चात संतों के सानिध्य में शोभायात्रा निकलेगी।

Sunday, May 17, 2009

गीता जयंती महोत्सव का शुभारंभ



गीता के दिव्य संदेश हर युग में प्रासंगिक
गीता भारतीय संस्कृति का वह सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है जो हजारों वर्षों से प्रकाश स्तंभ की तरह अंदर-बाहर के अंधकार को दूर कर रहा है। गीता के संदेश कर्म एवं व्यवहार क्षेत्र की मिथ्या धारणाओं को मिटाने का काम करते हैं। हम सुख-दुःख में विचलित हुए बिना पलायन के बजाय कर्तव्य और पुरुषार्थ के मार्ग पर चलें, यही गीता का दिव्य संदेश है जो हर युग में प्रासंगिक रहेगा।


भारत माता मंदिर, हरिद्वार के संस्थापक आचार्य महामंडलेश्वर स्वामी सत्यमित्रानंदजीगिरिजी ने ये प्रेरक उद्गार सोमवार सुबह गीता भवन में 50वें अभा गीता जयंती महोत्सव के शुभारंभ समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में व्यक्त किए।

अंतरराष्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय के आचार्य जगद्गुरु स्वामी रामदयालजी महाराज की अध्यक्षता और निरंजनी आश्रम भीलवा़ड़ा से पधारे महामंडलेश्वर स्वामी जगदीशपुरीजी के विशेष आतिथ्य में आचार्य पं. कल्याणदत्त शास्त्री व विद्वान ब्राह्यणों द्वारा वैदिक मंत्रोच्चार, शंखध्वनि एवं स्वस्ति वाचन के बीच अतिथि संतों ने भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा के समक्ष दीप प्रज्वलित कर इस 9 दिवसीय स्वर्ण जयंती महोत्सव का शुभारंभ किया।

Thursday, May 14, 2009

संशय से मुक्ति दिलाती है गीता : रामदयाल महाराज

इंदौर. भारतीय संस्कृति में विचारों की श्रेष्ठता है। गीता राष्ट्र और समाज को दिशा देने वाला अद्भुत ग्रथ है। संसार के मायाजाल में उलझकर मनुष्य भटकने लगता है तब गीता का संदेश हर किस्म के संशय से मुक्ति दिलाते हैं। भारतीय धर्म-संस्कृति का प्रतिबिंब है गीता। यह पुरुषार्थ की प्रेरणा देता है। देश की दुर्दशा गीता की अनदेखी की वजह से ही है। सभी धर्मग्रंथों का यह शिखर है।

गीता भवन में चल रहे 51 वें अ.भा. गीता जयंती महोत्सव में स्वामी गोविंददेव गिरि महाराज ने ये विचार व्यक्त किए। मंगलवार को मोक्षदा एकादशी जयंती महापर्व पर हजारों भक्तों ने सामूहिक गीता पाठ भी किया। पं. कल्याणदत्त शास्त्री के निर्देशन में ब्राrाणों ने भगवान शालिग्राम के श्रीविग्रह पर विष्णु सहस्त्रनाम पाठ से सहस्त्रार्चन किया। अंतरराष्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय के आचार्य स्वामी रामदयाल महाराज ने धर्मसभा की अध्यक्षता की। हजारों श्रद्धालुओं ने संत-विद्वानों के साथ गीता का सामूहिक पाठ कर दान भी दिया।

सुबह भजन-संकीर्तन के साथ महोत्सव के चौथे दिन कार्यक्रम का शुभारंभ किया। गोविंददेव गिरी और भीलवाड़ा के महामंडलेश्वर स्वामी जगदीशपुरी महाराज के प्रवचनों के बाद अध्यक्षता करते हुए स्वामी रामदयाल महाराज ने कहा गीता संपत्ति नहीं, संस्कृति पर केंद्रित ग्रथ है। गीता का संदेश हर युग में शाश्वत और प्रासंगिक है।

दोपहर के सत्र में ऋषिकेश के स्वामी अभिनव शेखरेंद्र तीर्थ, वृंदावन के स्वामी प्रणवानंद, स्वामी श्यामाशरण, अयोध्या के रामानुजाचार्य स्वामी श्रीधराचार्य, स्वामी गोविंददेव गिरी के अलावा पुरी पीठाधीश्वर जगद्गुरु शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती ने भी गीता महत्व पर ओजस्वी वक्तव्य दिया। मंच संचालन पं. रवि शास्त्री ने किया। बाबूलाल बाहेती, गोपालदास मित्तल, राम ऐरन, महेशचंद्र शास्त्री, बनवारीलाल जाजू, हरिकिशन मुछाल, प्रेमचंद्र गोयल आदि ने संत-विद्वानों की अगवानी की और आरती में भाग लिया।

आचार्य संहिता की पालना से ही आतंकवाद से मुक्ति संभव : आचार्य रामदयाल

राजसमन्द। अन्तर्राष्ट्रीय राम स्नेही सम्प्रदाय के आचार्य रामदयाल महाराज ने कहा कि आचार्य संहिता की पालना करने से ही आतंक हिंसा का शमन संभव है। हनुमान को शक्ति एवं भक्ति का शमन संभव है। हनुमान को शक्ति एवं भक्ति का प्रतिक बताते हुए कहा कि समस्त देव शक्तियाें को एकजुट होकर संघर्ष की आवश्यकता है।
वे हनुमान जयंती के अवसर पर बालाजी धाम उमराया में आयोजित विशाल धर्मसभा को सम्बोधित कर रहे थे। इस अवसर पर आयताें की धूणी के बाल योगी सन्तोष नाथ, वेरो का मठ के संत रविन्द्र पुरी, भारत माता मंदिर के राम स्वरूपदास, पुष्कर आश्रम के बिहारीदान और रोकडिया हनुमान के बजरंग दास महाराज भी उपस्थित थे। धर्मसभा मे विशिष्ट अतिथि के रूप में आरके मार्बल के निदेशक विमल पाटनी, निर्मल जैन समाज सेवी शांतिलाल सिंघवी, भाजपा नेता धर्मनारायण जोशी, पूर्व प्रधान भानु पालीवाल, राजसमन्द भाजपा प्रत्याशी रासासिंह रावत उपस्थित थे। महन्त रविन्द्रपुरी ने कहा कि धर्मसभा के माध्यम से चरित्र चिन्तन को उत्कृष्टता प्रदान करना है उन्होने कहा कि धर्म में आडम्बर समाज में विकृति लाता है। ऐसे में हमें इससे बचने का प्रयास करना होगा। सभा को बालयोगी सन्तोषनाथ महाराज, संस्थापक महेन्द्र कोठारी, धर्मनारायण जोशी, समाज सेवी मधुसुदन व्यास, घीसूलाल कोठारी, बाबुलाल कोठारी ने भी सम्बोधित किया। इस अवसर पर अरबन कॉपरेटीव बैंक के चेयरमेन हरिसिंह राठौड, नानालाल सार्दुल, जिला परिषद सदस्य ललित चोरडिया, गणेशदास वैष्णव, भीम सिंह चौहान, कैलाश जोशी, पवन शर्मा, हेमंत लडढ़ा एवं जगदीश लड्ढ़ा भी उपस्थित थे। संयोजन कमल किशोर व्यास ने किया।
कुरज : महिला मोर्चा कुरज के तत्वावधान में ग्राम के संकटमोचन हनुमान मंदिर में हनुमान जयंती पर संगीतमय हनुमान पाठ, कीर्तन सहित विविध धार्मिक आयोजन हुए। इस अवसर पर कैलाश गिरी गोस्वामी, मधु गिरी गोस्वामी, उदयलाल सोनी, कान्ता लाहौटी आदि उपस्थित थे।

Monday, May 11, 2009

प्रत्येक युवा को सैन्य प्रशिक्षण मिले ः रामदयाल

बड़ीसादड़ी, 15 जन. (प्रासं)। देश में फैल रहे आतंकवाद के खात्मे के लिए देश के प्रत्येक युवा को सैन्य प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये।
उक्त कथन गुरूवार को अन्तर्राष्ट्रीय रामस्नेही समुदाय के पीठाधीश्वर स्वामी रामदयाल जी महाराज ने बानसी में महेश भवन के उदघाटन पश्चात आयोजित प्रवचन के दौरान व्यक्त किये। उन्होंने कहा कि आतंकवाद की कोई जात नहीं होती। उनकी तो सिर्फ एक जात आतंकवाद ही होती है जिसके खात्मे को लेकर भारत के प्रत्येक नागरिक व युवा को चिंतन व मनन करने की महत्ती आवश्यकता है।
इससे पूर्व स्वामी रामदयाल जी महाराज के बानसी आगमन पर भव्य स्वागत के साथ ही गांव में ढोल नगाड़ों के साथ मंगल पदरावनी की गई। इसके पश्चात नवनिर्मित महेश भवन का उदघाटन किया। इस अवसर पर माहेश्वरी नवयुवक मण्डल अध्यक्ष शैलेन्द्र झंवर, प्रदेश कोषाध्यक्ष राजेन्द्र गगरानी, युवा संगठन के जिला प्रवक्ता निलेश बलदवा, पूर्व जिलाध्यक्ष हरकलाल बसेर, बड़ीसादड़ी के अध्यक्ष मोहनलाल पोरवाल, भीण्डर के अध्यक्ष रतनलाल, बोहेड़ा अध्यक्ष सीताराम मालू सहित कई पुरूष युवा व राजपूती चुंदड़ पहनी महिलाएं उपस्थित थी।
उदघाटन कार्यक्रम पश्चात महेश भवन परिसर के बाहर चौक में आयोजित प्रवचन कार्यक्रम में सर्वप्रथम पूर्व जिलाध्यक्ष हरकलाल बसेर ने भामाशाहों के अभिनंदन की औपचारिक रस्म अदा की। वहीं पीठाधीश्वर रामदयाल महाराज ने भामाशाहों को शाल एवं बानसी के अध्यक्ष दिनेश बसेर ने माल्यार्पण कर भामाशाह भंवरलाल गदिया, मदनलाल गदिया, बद्रीलाल मालू, शांतिलाल आगाल, ऊ ंकारलाल गदिया को सम्मानित किया।
कार्यक्रम के दौरान बस्सी के गोपाल कोठारी ने आकर्षक भजन की प्रस्तुति दी। कार्यक्रम के इस अवसर पर बानसी युवा मण्डल के प्रमोद मालू, बड़ीसादड़ी के अध्यक्ष कैलाश नाराणीवाल, बोहेड़ा के रमेश काबरा सहित विभिन्न धर्म सम्प्रदाय के व्यक्ति उपस्थित थे।

यादगार दिन गायों की सेवा कर मनाएं

बड़ीसादड़ी, 16 जन. (प्रासं)। बड़े-बुजुर्ग एवं माता-िपता अपने बच्चे बच्चियों का जन्म महोत्सव एवं शादी की सालगिरह गौशालाओं में गायों की सेवा कर मनाए।
उक्त कथन अन्तर्राष्ट्रीय रामस्नेही सम्प्रदाय के पीठाधीश स्वामी रामदयाल महाराज ने बड़ीसादड़ी ऊं शांती गौशाला का अवलोकन करने के दौरान व्यक्त करते हुए कहे। इसके पश्चात स्वामी रामदयाल महाराज का झाला मन्ना सर्कल पर भव्य स्वागत किया गया जहां से वे मखमली चटाई पर पैदल रवाना हुए। रास्ते में बोहरा सम्प्रदाय, माहेश्वरी समाज, भारत-िवकास परिषद, विजयवर्गीय परिवार, गायत्री परिवार, लक्ष्मीनारायण सत्संग समिति, राजपूत समाज द्वारा भव्य पदरावनी कार्यक्रम आयोजित कर पूजा अर्चना कर स्वागत किया।
स्वामी रामदयाल महाराज के बड़ीसादड़ी में राधेश्याम पोरवाल के मकान पर पदरावनी कार्यक्रम से पूर्व उन्हें जुलूस के रूप में कई जनप्रतिनिधियों व स्वयंसेवी संगठनों के पदाधिकारियों ने पुनः बड़ीसादड़ी पधारने का न्यौता दिया।
इससे पूर्व स्वामी रामदयाल महाराज ने बानसी में दूसरे दिन महेश हवेली चौक में प्रवचन देते हुए देश की नारियों से बच्चों में राष्ट्र प्रेम की भावना जागृत करने का आव्हान किया।

रामदयाल महाराज

कपासन, 6 अप्रेल (प्रासं)।
अर्न्तराष्ट्रीय रामस्नेह स्म्प्रादाय शाहपुरा (मेवाड़) के पीठाधीश्वर जगदगुरू श्री रामदयाल महाराज को कपासन रामद्वारा ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर सर्व सम्मति से निर्वाचित घोषित करने पर रामस्नेही भक्तों एवं धर्म प्रेमी लोगों में हर्ष व्याप्त है।
ट्रस्ट मंत्री रामजस डाड के अनुसार नवनिर्वाचित अध्यक्ष स्वामी रामदयालजी महाराज ने अपनी कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष रामवल्लभ सौमानी, मंत्री रामजस डाड, कोषाध्यक्ष कैलाश चन्द्र सौमानी तथा सहकोषाध्यक्ष रामपाल सौमानी को मनोनीत किया है।

आतंकवाद के जन्मदाता ही परेशान : रामदयाल

चित्तौड़गढ़, 12 अप्रेल (प्रासं)। अन्तर्राष्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय के पीठाधीश्वर आचार्य स्वामी रामदयाल महाराज ने कहा कि आंतकवाद के जन्मदाता स्वंय ही अब आंतकवाद से खुश नहीं है, एवं इसका भी अंत होना है।
चित्तौड़गढ़ में रविवार को आयाजित कार्यक्रमों में भाग लेने आए रामदयाल महाराज ने 'प्रातःकाल' के साथ बातचीत करते हुए आंतकवाद पर चर्चा करते हुए कहा कि आंतकवाद जितना गंभीर चिंतन का विषय है, उतना ही इस समस्या का समाधान भी गंभीर है, लेकिन उन्होंने कहा कि संसार में ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका समाधान न हो।
आचार्य ने इस दौरान युवा वर्ग के धार्मिक आयोजनों के प्रति रूझान होने के बारे में पूछे जाने पर कहा कि इस तरह के रूझान में भी प्रदर्शन वाद को प्राथमिकता मिल रही है, लेकिन कल यह दर्शन के लिए भी धर्म को अपनाएगा, उन्होंने कहा कि विभिन्न पर्वे पर जब युवा पीढ़ी बाहर आती है तो हर दिन को राष्ट्र पर्व माना जाना चाहिए एवं धर्म के प्रति बढ़ते यह कदम सुखद स्थिति का संकेत करते है।

विश्वास ही सफलता की कुंजी: रामदयाल

चित्तौड़गढ़, 12 अप्रेल (प्रासं)।
अन्तर्राष्ट्रीय रामस्नेही संप्रदाय के पीठाधीश जगदगुरू आचार्य रामदयाल महाराज ने कहा कि विश्वास ही सफलता की कुंजी है, एवं इस विश्वास को विशेष तौर पर बैंको को उपभोक्ताओं के प्रति बनाए रखना चाहिए।
रामदयाल महाराज ने यहां चित्तौड़गढ़ अरबन को-ऑपरेटिव बैंक लि. के प्रधान कार्यालय एवं मुख्य शाखा के केशव माधव सभागार में स्थित भूतल में स्थानान्तरित होने पर आयोजित मंगल प्रवेश समारोह को संबोधित करते हुए कहा कि बैंको में जिस तरह अपराध की घटनाएं बढ़ती जा रही है, वह चिंता का विषय है।
इस अवसर पर बैंक के अध्यक्ष आई.एम.सेठिया ने रामदयाल महाराज एवं समारोह में मौजूद गणमान्य नागरिकों का स्वागत करते हुए बताया कि उक्त बैंक की सकल जमाएं अब तक 18.63 करोड़ एवं कुल अग्रिम 9.21 करोड़ तक पहुंच गई है। उन्होंने बताया कि गत वर्ष की तुलना में बैंक का मुनाफा 35.66 लाख रूपए तक पहुंच गया है एवं आगामी 30 जून से पूर्व चन्देरिया एवं बेगूं में भी बैंक की शाखाएं प्रारम्भ की जा रही है। समारोह की अध्यक्षता एस.बी.बी.ज.ð के उप महाप्रबन्धक ए.एल. जैन ने की ।

Wednesday, May 6, 2009

रामस्नेही सम्प्रदाय

रामस्नेही सम्प्रदाय :

सुप्रसिद्ध सन्त सन्तदास की शिष्य परम्परा में सन्त दरियाबजी तथा सन्त रामचरण जी हुए। सन्त रामचरण जी शाहपुरा की रामस्नेही शाखा के प्रवर्तक थे, जबकि सन्त दरियाबजी रैण के रामस्नेही शाखा के थे।

सन्त दरियाबजी :

इनका जन्म जैतारण में १६७६ ई० में हुआ था। इनके गुरु का नाम सन्तदास था। इन्होंने कठोर साधना करने के बाद अपने विचारों का प्रचार किया। उन्होंने गुरु को सर्वोपरि देवता मानते हुए कहा कि गुरु भक्ति के माध्यम से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। भक्ति के समस्त साधनों एवं कर्मकाण्डों में इन्होंने राम के नाम को जपना ही सर्वश्रेष्ठ बतलाया तथा पुनर्जन्म के बन्धनों से मुक्ति पाने का सर्वश्रेष्ठ साधन माना।

उन्होंने राम शब्द में हिन्दू - मुस्लिम की समन्वय की भावना का प्रतीक बताया। उन्होंने कहा कि "रा"शब्द तो स्वयं भगवान राम का प्रतीक है, जबकि 'म' शब्द मुहम्मद साहब का प्रतीक है। उन्होंने कहा कि गृहस्थ जीवन जीने वाला व्यक्ति भी कपट रहित साधना करते हुए मोक्ष प्राप्त कर सकता है। इसके लिए गृहस्थ जीवन का त्याग करना आवश्यक नहीं है। दरियाबजी ने बताया है कि किस प्रकार व्यक्ति निरन्तर राम नाम का जप कर ब्रह्म में लीन हो सकता है।

सन्त दरियाबजी ने समाज में प्रचलित आडम्बरों, रुढियों एवं अंधविश्वासों का भी विरोध किया उनका मानना था कि तीर्थ यात्रा, स्नान, जप, तप, व्रत, उपवास तथा हाध में माला लेने मात्र से ब्रह्म को प्राप्त नहीं किया जा सकता। वे मूर्ति पूजा तथा वर्ण पूजा के घोर विरोधी थे। उन्होंने कहा कि इन्द्रिय सुख दु:खदायी है, अत: लोगों को चाहिए कि वे राम नाम का स्मरण करते रहें। उनका मानना था कि वेद, पुराण आदि भ्रमित करने वाले हैं। इस प्रकार दरियाबजी ने राम भक्ती का अनुपम प्रचार किया।

सन्त रामचरण :

सन्त रामचरण शाहपुरा की रामस्नेही की शाखा के प्रवर्तक थे। उनका जन्म १७१९ ई० में हुआ था। पहले वे जयपुर नरेश के मन्त्री बने, परन्तु बाद में इन्होंने अचानक सन्यास ग्रहण कर लिया तथा सन्तदास के शिष्य महाराज कृपाराम को उन्होंने अपना गुरु बना लिया। इन्होंने कठोर साधना की और अन्त में शाहपुरा में बस गये। इन्होंने यहाँ पर मठ स्थापित किया तथा राज्य के विभिन्न भागों में रामद्वारे बनवाये। इस प्रकार वे अपने विचारों तथा राम नाम का प्रचार करते रहे।

सन्त रामचरण ने भी मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु के महत्व पर अधिक बल दिया। उनके नाम को जपने से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है। उन्होंने सत्संग पर विशेष बल दिया। उनका मानना था कि जिस प्रकार गंगा के पानी में मिलने के बाद नालों का गन्दा पानी भी पवित्र हो जाता है, उसी प्रकार मोहमाया में लिप्तव्यक्ति भी साधुओं की संगति से निर्मल हो जाता है।

रामचरण जी ने भी मूर्ति पूजा, तीर्थ यात्रा, बहुदेवोपासना कन्या विक्रय, हिन्दू - मुस्लिम भेदभाव तथा साधुओं का कपटाचरण आदि बातों का जोरदार विरोध किया। उनका मानना था कि मंदिर तथा मस्जिद दोनों भ्रम हैं तथा पूजा - पाठ, नमाज एवं तीर्थ यात्रा आदि ढोंग हैं, अर्थात् धार्मिक आडम्बर हैं। वे भांग, तम्बाकू एवं शराब के सेवन तथा मांस - भक्षण के भी विरोधी थे।


रामस्नेही सन्तों का प्रभाव :

रामस्नेही सन्तों ने राम - नाम के पावन मन्त्र का प्रचार करते हुए लोगों को राम की भक्ति का सन्देश पहुँचाया। उनकी शिष्य परम्परा के विकास के साथ - साथ स्थान - स्थान पर रामद्वारों की स्थापना होती गई। रामस्नेही साधु इन्हीं रामद्वारों में निवास करते हैं तथा राम नाम को जपते रहते हैं। वे आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं। हिन्दू परिवार के युवकों तथा बच्चों को दीक्षा देकर शिष्य परम्परा को आगे बढ़ाते हैं। ये मिट्टी का बर्तन में भोजन करते हैं और लकड़ी के कमण्डल से पानी पीते हैं।

राम - स्नेही मूर्ति पूजा नहीं करते हैं, अपितु गुरुद्वारे में अपने गुरु का चित्र अवश्य रखते हैं और प्रात:काल तथा सायंकाल को गुरुवाणी का पाठ करते हैं। रामचरण सम्प्रदाय में धार्मिक निष्ठा, अनुशासन, सत्य निष्ठा तथा नैतिक आचरण पर विशेष बल दिया जाता है। वे मांस - भक्षण नहीं करते हैं, सिर्फ शाकाहारी भोजन करते हैं। गुरुवाणी को बड़े प्रेम से गाया जाता है। इनकी शाखाएँ अलग - अलग होते हुए भी इनका मूल स्रोत एक समान है। अत: सभी शाखाओं, व्यवस्था तथा आचार - व्यवहार में एकरुपता दिखाई देती है।

रामस्नेही संप्रदास के संत कवि

रामस्नेही संप्रदास के संत कवि




दरियाव जी / दरिया साहब
दरिया के साहिब राम
राम- सुमिरन
भक्ति की महत्ता
सतगुरु की आवश्यकता
समाज संबंधी दायित्व
किसनदास
सुखराम

राजस्थान विशेषकर इसका नागौर जनपद शुरु से संतों व भक्तों की पावनभूमि के रुप में जाना जाता रहा है। इन संतों ने विविध संप्रदायों को अस्तित्व में लाया। इन संप्रदायों में रामस्नेही संप्रदाय बहुत बड़ा अवदान रहा है।

रामस्नेही संप्रदाय के प्रवर्त्तक सन्त साहब थे। उनका प्रादुर्भाव १८ वीं शताब्दी में हुआ। साधारण जन को लोकभाषा में धर्म के मर्म की बात समझाकर, एक सुत्र में पिरोने में इस संप्रदाय से जुड़े लोगों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इन संतों ने हिंदू- मुसलमान, जैन- वैष्णव, द्विज- शूद्र, सगुण-निर्गुण, भक्ति व योग के द्वन्द्व को समाप्त कर एक ऐसे समन्वित सरल मानवीय धर्म की प्रतिष्ठापना की जो सबके लिए सुकर एवं ग्राह्य था। आगे चलकर मानवीय मूल्यों से सम्पन्न इसी धर्म को "रामस्नेही संप्रदाय' की संज्ञा से अभिहित किया गया।

रेण- रामस्नेही संप्रदाय में शुरु से ही गुरु- शिष्य की परंपरा चलती आयी है। इनका सिद्धांत संत दरियाजी के सिद्धांतों पर आधारित उनके अनुयायियों ने इनका प्रचार- प्रसार देश के विभिन्न भागों में निरंतर करते रहे। इस संप्रदाय के प्रमुख संतों का उल्लेख इस प्रकार है -


दरियाव जी / दरिया साहब

नागौर जिले में रामस्नेही संप्रदाय की परंपरा संत दरियावजी से आरंभ होती है। इनका जन्म जोधपुर राज्य के जैतारण गाँव में वि.सं. १७३३ ( ई. १६७६ ) की भाद्रपद कृष्ण अष्टमी, बुधवार को हुआ था। इनके पिता का नाम मानसा तथा माता का नाम गीगा था। ये पठान धुनिया थे।

मुरधर देस भरतखण्ड मांई, जैतारण एक गाँव कहाई।
जात पठाण रहत दोय भाई, फतेह मानसा नाम कहाई।।

-- दरियाव महाराज के जन्म चरण की परची

पिता मानसा सही, माता गीगा सो कहिये।
बण सुत को घर बुदम जात धुणियां जो लहिये।।

-- दरियाव महाराज की जन्मलीला
( ह.ग्रंथ, रा.प्रा.वि.प्रतिष्ठान, जोधपुर )

खुद दरिया साहब ने अपनी बाणी में कहा है -

जो धुनियां तो भी मैं राम तुम्हारा।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हो सिरताज हमारा।।

-- दरिया बाणी पद

प्रेमदास की कृपा से दरिया के सारे जंजाल मिट गये --

सतगुरु दाता मुक्ति का दरिया प्रेमदयाल।
किरपा कर चरनों लिया मेट्या सकल जंजाल।।

-- दरिया बाणी

दरिया अपने गुरु में बड़ी श्रद्धा रखते थे और गुरु भी सदैव कृपा की वर्षा द्वारा दरिया के अन्तःकरण का सेचन करते रहते थे। कहा जाता है कि एक बार गुरु प्रेमदास को रसोई ( भोजन) देनी थी, परंतु दरिया निर्धन थे, अतः चिंतित हुए। रात को जब दरिया सोये हुए थे, तब भगवान ने हुंडी लिखकर उनके सिरहाने रख दी, जिससे रुपये लेकर दरिया ने गुरु को रसोई ( भोजन ) दी। इसका उल्लेख दादूपंथी संत ब्रह्मदासजी ने अपनी भक्तमाल में किया है --

सिख दरिया प्रेम सतगुर, दयण रसोई द्वार।
सिराणे गा मेल सूतां, हुंडी सिरजणहार, तो
किरतार जी किरतान, कारज सारिया किरतार

-- भक्तमाल चतुर्थ, छः २४

दरिया ने मेड़ता व रेण के बीच पड़ने वाले ""खेजड़ा'' नामक स्थान का साधना स्थली के रुप में चुना और साधना की परिपक्वता के पश्चात् लोकहितार्थ अलग- अलग स्थानों में घूमकर अपने अनुभवों एवं उपदेशों का प्रचार- प्रसार किया। इस दौरान इनके अनेक शिष्य बने। राम- नाम का प्रचार करते हुए राम के स्नेही दरिया ने सन् १७५८ ई.( वि.सं. १८१५ ) मार्गशीर्ष शुक्ला १५ को रेण में ही इनका देहांत हो गया। रेण में आज भी संत दरियावजी की संगमरमर की समाधि बनी हुई है, जहाँ प्रति वर्ष चैत्र सुदि पूर्णिमा को मेला लगता है।

गुरु दरिया द्वारा समय- समय पर दिये गये उपदेश एवं उनकी साधनात्मक अनुभूतिमय कविता का शिष्यों ने संकलित किया, यही ""वाणी'' कहलाती है। अपनी वाणी में उन्होंने बोल- चाल के शब्दों का ही प्रयोग किया है। यों फारसी- अरबी शब्दों ( जैसे- रहीम, हवाल, दरद, हुकुम, सुलतान, गलतान, गुजरान, शैतान, खबर, ,ख्वार, दस्त, दीवाना, मौल, मंजिल, हाजिर, दरबार, दरवेस आदि ) का भी प्रयोग हुआ है, पर ये सब जनसाधारण में प्रचलित शब्द ही हैं, इसलिए बोधगम्य है। चूंकि उनकी साधना व प्रचार क्षेत्र राजस्थान ही रहा, अतः उनकी वाणी में राजस्थानी शब्दों का बाहुल्य है।

कहा जाता है कि इनकी ""वाणी''दस हजार ( १०००० ) साखी व पदों के परिमाण में थी, परंतु स्वयं दरियासाहब ने उस वाणी- संग्रह को जल में बहा दिया। इनके संभावित कारण में माने जाते हैं --

१. अब दरिया उस असामान्य आध्यात्मिक भूमिका को स्पर्श कर चुके थे, जहाँ कविता की यश कामना का प्रवेश वर्जित है।

२. उनके सामने ही कबीर व दादू आदि निर्गुण संतों की बाणियों ने पूजा का रुप धारण कर लिया था, जिससे उसका मूल उद्देश्य ही अलग- थलग पड़ गया था।

३. दरिया उस ब्रह्म की ज्योति का साक्षात्कार कर चुके थे, जिसके दर्शन के पश्चात् कथनी व करनी झूठी लगने लगती है, धुआं जैसे प्रतीत होने लगती है। स्वयं दरिया की वाणी है --

अनुभव झूठी थोथरी निर्गुण सच्चा नाम।
परम जोत परचे भई तो धुआं से क्या काम।।

फिर भी दरिया साहब के निर्वाण के पश्चात् श्रद्धालु अनुयायियों ने उनकी यंत्र- तंत्र विकीर्ण साखियों व पदों का संकलन किया, जो लगभग ७०० साखी व पदों के रुप में प्राप्त हे।

उनके भक्तिभाव में अनेक रचनाएँ हुई, जो अपने- आप में एक समृद्ध साहित्यिक प्रतिभा को दर्शाता है।

कोई कंथ कबीर का, दादू का महाराज
सब संतन का बालमा दरिया का सरताज।

दरिया के साहिब राम

राम- सुमिरन

दरिया ने परमात्मा की प्राप्ति के लिए राम- सुमिरन को महत्व दिया है। राम- स्मरण से ही कर्म व भ्रम का विनाश संभव है। अतः अन्य सभी आशाओं का परित्याग कर केवल रामस्मरण पर बल देना चाहिए --

""दरिया सुमिरै राम को दूजी आस निवारि।''

राम- स्मरण करने वाला ही श्रेष्ठ है। जिस घट ( शरीर, हृदय ) में राम- स्मरण नहीं होता, उसे दरिया घट नहीं ""मरघट'' कहते हैं।

सब ग्रंथों का अर्थ ( प्रयोजन ) और सब बातों की एक बात है -- ""राम- सुमिरन''

सकल ग्रंथ का अर्थ है, सकल बात की बात।
दरिया सुमिरन राम का, कर लीजै दिन रात।।

-- सुमिरन का अंग

दरिया साहब की मान्यता है कि सब धर्मों का मूल राम- नाम है और रामस्मरण के अभाव में चौरासी लाख योनियों में बार- बार भटकना पड़ेगा, अतः प्रेम एवं भक्तिसंयुत हृदय से राम का सुमिरन करते रहना चाहिए, लेकिन यह रामस्मरण भी गुरु द्वारा निर्देशित विधि- विशेष से संपन्न होना चाहिए। केवल मुख से राम- राम करने से राम प्राप्ति नहीं हो सकती। उस राम- शब्द यानि नाद का प्रकाशित होना अनिवार्य है, तभी ""ब्रह्म परचै'' संभव हे। शब्द- सूरति का योग ही ब्रह्म का साक्षात्कार है, निर्वाण है, जिसे सदुरु सुलभ बनाता है। सुरति यानि चित्तवृति का राम शब्द में अबोध रुप से समाहित होना ही सुरति- शब्द योग है।

इसलिए जब तक शरीर में सांस चल रहा है, तब तक राम- स्मरण कर लेना चाहिए, इस अवसर को व्यर्थ नहीं खोना है, क्योंकि यह शरीर तो मिट्टी के कच्चे ""करवा'' की तरह है, जिसके विनष्ट होने में कोई देर नहीं लगती --

दरिया काया कारवी मौसर है दिन चारि।
जब लग सांस शरीर में तब लग राम संभारि।।

-- सुमिरन का अंग

राम- सुमिरन में ही मनुष्य देह की सार्थकता है, वरन् पशु व मनुष्य में अंतर ही क्या!

राम नाम नहीं हिरदै धरा, जैसे पसुवा तेसै नरा।
जन दरिया जिन राम न ध्याया, पसुआ ही ज्यों जनम गंवाया।।

-- दरिया वाणी पद

गुरु प्रदत्त निरंतर राम- स्मरण की साधना से धीरे- धीरे एक स्थिति ऐसी आती है, जिसमें ""राम'' शब्द भी लोप हो जाता है, केवल ररंकार ध्वनि ही शेष रहती है। क्षर अक्षर में परिवर्तित हो जाता है, यह ध्वनि ही निरति है। यही ""पर- भाव'' है और इसी ""पर- भाव'' में भाव अर्थात् सुरति का लय हो जाता है अर्थात भाव व ""पर- भाव'' परस्पर मिलकर एकाकार हो जाते हैं, यही निर्वाण है, यही समाधि है --

एक एक तो ध्याय कर, एक एक आराध।
एक- एक से मिल रहा, जाका नाम समाध।।

-- ब्रह्म परचै का अंग

यही सगुण का निर्गुण में विलय है, यही संतों का सुरति- निरति परिचय है और चौथे पद ( निर्वाण) में निवास की स्थिति है। यही जीव का शिव से मिलन है, आत्मा का परमात्मा से परिचय है, यही वेदान्तियों की त्रिपुटी से रहित निर्विकल्प समाधि है। यहाँ सुख- दुख, राग- द्वेष, चंद- सूर, पानी- पावक आदि किसी प्रकार के द्वन्द्व का अस्तित्व नहीं। यही संतों का निज घर में प्रवेश होना है, यही अलख ब्रह्म की उपलब्धि है, यही बिछुड़े जीव का अपने मूल उद्रम ( जात ) से मिलन है, यही बूंद का समुद्र में विलीनीकरण है, यही अनंत जन्मों की बिछुड़ी मछली का सागर में समाना है। इस सुरत- निरति की एकाकारिता से ही जन्म- मरण का संकट सदा- सदा के लिए मिट जाता है। यही सुरति- निरति परिचय संत दरिया का साधन भी है और साध्य भी। परंतु इस समाधि की स्थिति की प्राप्त करने के लिए प्रक्रिया- विशेष से गुजरना पड़ता है। वह प्रक्रिया- विधि- सद्रुरु सिखलाता है, इसलिए संत- मत में सद्रुरु की महत्ता स्वीकार की गई है।

इस प्रक्रिया में गुरु- प्रदत्त ""राम'' शब्द की स्थिति सबसे पहले रसना में, फिर कण्ठ में , कण्ठ से हृदय तथा हृदय से नाभि में होती है। नाभि में शब्द- परिचय के साथ सारे विवादों का निराकरण भी शुरु हो गया है और प्रेम की किरणे प्रस्फुटिक होने लगती हें। इसलिए संतों द्वारा नाभि का स्मरण अति उत्तम कहा गया है। नाभि से शब्द गुह्यद्वार में प्रवेश करता हुआ मेरुदण्डकी २१ मणियों का छेदन कर ( औघट घट लांघ ) सुषुम्ना ( बंकनाल ) के रास्ते ऊर्ध्वगति को प्राप्त होता हुआ त्रिकुटी के संधिस्थल पर पहुँच जाता है। यहाँ अनादिदेव का स्पर्श होता है और उसके साथ ही सभी वाद- विवादों का अंत हो जाता है। यहाँ निरंतर अमृत झरता रहता है। इस अमृत के मधुर- पान से अनुभव ज्ञान उत्पन्न होता है। यहाँ सुख की सरिता का निरंतर प्रवाह प्रवहमान होता रहता है। परंतु दरिया का प्राप्य इस सुखमय त्रिकुटी प्रदेश से भी श्रेष्ठ है, क्योंति दरिया का मानना है --

दरिया त्रिकुटी महल में, भई उदासी मोय।
जहाँ सुख है तहं दुख सही, रवि जहं रजनी होय।।

-- नाद परचै का अंग

यद्यपि त्रिकुटी तक पहुँचना भी बिरले संतों का काम है, फिर भी निर्वाण अर्थात् ब्रह्मपद तो उससे और आगे की वस्तु है --

दरिया त्रिकुटी हद लग, कोई पहुँचे संत सयान।
आगे अनहद ब्रह्म है, निराधार निर्बान।।

निर्वाण को प्राप्त करने हेतु सुन्न- समाधि की आवश्यकता है और शून्य समाधि ( निर्विकल्प समाधि ) के लिए सुरति को उलट कर केवल ब्रह्म की आराधना में लगाना पड़ता है, अर्थात् उन्मनी अवस्था प्राप्त करनी पड़ती है --

सुरत उलट आठों पहर, करत ब्रह्म आराध।
दरिया तब ही देखिये, लागी सुन्न समाध।।

भक्ति की महत्ता

दरिया का योग भक्ति का प्राबल्य है। इसीलिये तो उनकी वाणी में एक भक्त की सी विनम्रता है और भक्ति की याचना भी --

जो धुनिया तो भी मैं राम तुम्हारा।
अधम कमीन जाति मतिहीना, तुम तो हो सिरताज हमारा।
मैं नांही मेहनत का लोभी, बख्सो मौज भक्ति निज पाऊँ।।

-- दरिया बाणी पद

इनकी रचना में एक भक्त का सा तीव्र विरह है, तड़प है, मिलन की तालाबेली है, बिछड़न का दर्द है --

बिरहन पिव के कारण ढूंढ़न वन खण्ड जाय।
नित बीती पिव ना मिल्या दरद रहा लिपटाय।।
बिरहन का धर बिरह में , ता घट लोहु न माँस।।
अपने साहिब कारण सिसके सांसी सांस।।

-- बिरह का अंग

भक्त दरिया की कोई इच्छा नहीं, उसकी इच्छा धणी के हुकुम की अनुगामिनी है --

मच्छी पंछी साध का दरिया मारग नांहि।
इच्छा चालै आपणी हुकुम धणी के मांहि।।

-- उपदेश का अंग

भक्त व भगवान् का संबंध दासी- स्वामी का संबंध बताते हुए दरिया, स्वामी की आज्ञा को ही शिरोधार्य मानता है --

साहिब में राम हैं मैं उनकी दासी।
जो बान्या सो बन रहा आज्ञा अबिनासी।।

-- दिरया बाणी पद

दरिया ने तो स्पष्टतः योग को पिपीलिका- मार्ग की संज्ञा देकर उसकी कष्टसाध्यता के विरुद्ध भक्ति को विहंगम- मार्ग बतलाकर उसकी सहजता पर बल दिया है --

सांख योग पपील गति विघन पड़ै बहु आय।
बाबल लागै गिर पड़ै मंजिल न पहुँचे जाय।।
भक्तिसार बिहंग गति जहं इच्छा तहं जाय।
श्री सतगुर इच्छा करैं बिघन न ब्यापै ताय।।

सतगुरु की आवश्यकता

दरिया साहब ने भी कबीर, दादू आदि निर्गुण मार्गी संतों की तरह आत्मसाक्षात्कार या परम- पद की प्राप्ति के लिए सदगुरु की ही मुक्ति का दाता बतलाया है।

उनकी मान्यता है कि सतगुरु ही हरि की भक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं तथा शिष्य में पड़े संस्कार- रुप बीज को अंकुरित कर उसे पल्लवित एवं पुष्पित करते हैं --

""सतगुरु दाता मुक्ति का दरिया प्रेम दयाल।''

-- सतगुरु का अंग

दरिया का मान्यता है कि गुरु प्रदत्त राम- शब्द तथा ज्ञान द्वारा ही परमात्मा की प्राप्ति संभव है। शास्रों के पठन तथा श्रवण से प्राप्त ज्ञान द्वारा आत्म- साक्षात्कार संभव नहीं, क्योंकि शास्र द्वारा प्राप्त ज्ञान वैसा ही निस्सार एवं प्रयोजतनहीन है, जैसा हाथी के मुँह से अलग हुआ दाँत। हाथी का दाँत जब तक हाथी के मुंह से स्वाभाविक रुप में स्थित है, तभी तक वह शक्ति व बलसंयुत है और किसी गढ़ अथवा पौल ( दरवाजा ) को तोड़ने में सक्षम है, टूटकर मुँह से अलग होने पर निस्सार है।

दाँत रहे हस्ती बिना, तो पौल न टूटे कोय।
कै कर धारे कामिनी कै खैलारां होय।।

-- साध का अंग

समाज संबंधी दायित्व
दरिया साहब सामाजिक एक रुपता में विश्वास करते थे। उन्होंने एक जाति- वर्ण व वर्ण- भेद रहित समाज की कल्पना की थी। उनके दरबार में कोई अछूत नहीं था, सब एक से थे। उनके विचार बिल्कुल सरल परंतु प्रभावी थे।

दरिया के विचार में अभक्त तो निंदनीय है ही, परंतु भगवद्भक्त भी वहीं बंदनीय है, जो सदाचार के गुणों की अनुपालन के साथ भगवद्भक्ति करता है -

ररंकार मुख ऊचरै पालै सील संतोष।
दरिया जिनको धिन्न है, सदा रहे निर्दोष।।

-- मिश्रित साखी

दरिया का उपास्य राम, निर्गुण, निराकार, निरंजन, अनादि एवं अंतर में स्थित परब्रह्म परमेश्वार है। ऐसे राम के लिए कहीं बाहर भटकने, तीर्थाटन करने व बाह्याडम्बर करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि पवित्रीकृत मन की अंतर्मुखी वृत्ति द्वारा अपने हृत्प्रदेश में ही उसके दर्शन किये जा सकते हैं --

दुनिया भरम भूल बौराई।
आतम राम सकल घट भीतर जाकी सुध न पाई।
मथुरा कासी जाय द्वारिका अड़सठ तीरथ न्हावैं।
सतगुर बिन सोजी नहीं कोई फिर फिर गोता खावै।
चेतन मूरत जड़ को सेवै बड़ा थूज मत गैला।
देह आचार कियें काहा होई भीतर है मन मैला।।
जप तप संजम काया कसनी सांख जोग ब्रत दान।
या ते नहीं ब्रह्म से मैला गुन अरु करम बंधाना।।

दरिया के यहाँ मजहब के काल्पनिक भेद के लिए कोई अवकाश नहीं --

ररा तो रब्ब आप है ममा मोहम्मद जान।
दोय हरफ के मायने सब ही बेद कुरान।।

-- मिश्रित साखी

दरिया की साधना- पद्धति में बाह्य- साधनों व बाह्याडम्बरों का सर्वथा अभाव है, उनकी उपासना, पूजा व आरती मंदिर में नहीं होती, घट ( हृदय ) के भीतर होती है --

तन देवल बिच आतम पूजा, देव निरंजन और न दूजा।
दीपक ज्ञान पाँच कर बाती, धूप ध्यान खेवों दिनराती।
अनहद झालर शब्द अखंडा निसदिन सेव करै मन पण्डा।।

-- दरिया कृत आरती

दरिया के विचार में बाह्य आडम्बर या भेष परमात्मा- प्राप्ति के नहीं, आजीविका के साधन है -- ""दरिया भेष विचारिये, खैर मैर की छौड़।''

परमात्म- प्राप्ति के लिए कर्म- विरत या संन्यस्त होने की कोई अनिवार्यता नहीं, वह तो संसार में ""स्वकर्मण्यभिरतः'' होते हुए भी की जा सकती है। दरिया के विचार में तो गृही और साधु दोनों के लिए उत्तम रीति भी यही है --

हाथ काम मुख राम है, हिरदै सांची प्रीति।
जन दरिया गृह साध की याही उत्तम रीति।।

-- सांच का अंग

इस प्रकार दरिया ने व्यक्ति की वृकिंद्धगता वित्तेषणा के शमनार्थ, माया धन की अस्थिरता, शरीर की नश्वरता तथा कराल काल की विकरालता दिखाकर संग्रह की प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के बहाने परोक्ष रुप से सामाजिक समानता लाने का ही प्रयास किया है --

जगत जगत कर जोड़ ही दरिया हित चित लाय।
माया संग न चालही जावे नर छिटकाय।।
सुई डोरा साह का सुरग सिधाया नांह।
जन दरिया माया यहू रही यहां की यांह।।

तथा

मुसलमान हिंदू काहा षट दर्शन रंक राव।
जन दरिया निज नाम बिन सब पर जम का डाव।
मरना है रहना नहीं, या में फेर न सार।
जन दरिया भय मानकर अपना राम संभार।।
तीन लोक चौदह भुवन राव रंक सुलतान।
दरिया बंचे को नहीं सब जंवरे को खान।।

-- सुमिरन का अंग

वैकल्पिक अवगुणों के विनाश एवं सद्गुणों के विकास से ही समाज में परिवर्तन संभव है, अतः दरिया ने सदाचरण एवं चारित्रिक मूल्यों पर बल देकर सत्संगति व गुणोपेत सज्जनों की जो प्रशंसा की है, उसके पीछे उनकी मूल्यवान समाज रचना की भावना ही काम करती दिखाई दे रही है --

दरिया लच्छन साध का क्या गृही क्या भेष।
निहकपटी निपंख रहै, बाहिर भीतर एक।।
बिक्ख छुडावै चाह कर अमृत देवैं हाथ।
जन दरिया नित कीजिये उन संतन को साथ।।
दरिया संगत साध की सहजै पलटै बंस।
कीट छांड मुक्ता चुगै, होय काग से हंस।।
दरिया संगत साध की कलविष नासै धोय।
कपटी की संगत कियां आपहु कपटी होय।।

दरिया साहब का नारी के प्रति उदार और मानवीय दृष्टिकोण रहा है। उनके विचार में नारी समाज की महत्वपूर्ण इकाई है, उसे गर्हित एवं निंदनीय बताकर श्रेष्ठ समाज की कल्पना करना बेमानी है। नारी तो वस्तुतः ममता, त्याग व स्नेह की प्रतिमूर्ति है --

नारी जननी जगत की पाल पोष दे पोस।
मूरख राम बिसारि कै ताहि लगावै दौस।।
नारी आवै प्रीतिकर सतगुरु परसे आण।
जन दरिया उपदेस दै मांय बहन धी जाण।।

संत दरिया के इन निष्पक्ष व्यवहार एवं लोक हितपरक उपदेशों से प्रभावित होकर इनके अनेक शिष्य बने, जिन्होंने राजस्थान के विभिन्न नगरों व कस्बों में रामस्नेही- पंथ का प्रचार व प्रसार करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। फलस्वरुप यह धर्म दरिया साहब के समय ही समग्र मारवाड़ में प्रचारित हो चुका था और दरिया साहब के निर्वाण के बाद भी उनकी शिष्यपरंपरा व अनुयायियों में वृद्धि होती गयी। परिणामतः इस शाखा के रामद्वारे राजस्थान- डेह, चाडी, भोजास, फिडोद, सीलगाँव, तालनपुर, बिराईरामचौकी, रियां बड़ी, जाटावास, पाटवा, भैरुन्दा, पीसांग, पुष्कर, अजमेर, उदयपुर, नाथद्वारा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, मण्डोर ( जोधपुर ), फलौदी, फतेहपुर ( सीकर ), बाड़मेर जसोल आदि में तथा राजस्थान के बाहर मालवा- इंदौर, उज्जैन, देवास, धार, झींकर,
भाणपुर, महाराष्ट्र- यवतमाल, धानौड़ी, अमरवती, धामण गाँव, आकोल में, उत्तर- प्रदेश- रिछोला (पीलीभीत ) तथा दिल्ली में स्थापित हुए।

दरिया साहब के शिष्यों की संख्या ७२ बतलाई गई है, जिनमें अधिकांश शिष्य नागौर जनपद के ही हैं। शिष्यों में आठ प्रमुख है --

१. किसनदास टांकला,
२. सुखराम मेड़ता,
३. पूरणदास रेण,
४. नानकदास कुचेरा,
५. चतुरदास रेण,
६. हरखाराम नागौर,
७. टेमदास डीडवाना,
८. मनसाराम सांजू

इन आठ प्रमुख शिष्यों में भी चार शिष्य अतिप्रसिद्ध हुए --

किसनदास सुखराम उजागर पूरण नानकदास।
सिष चारों प्रगट दरिया के करी भक्ति परकास।।

-- परमदास- पद

दरिया साहब के इन शिष्यों ने उनके विचारों को समाज में व्यापकता से फैलाया। साथ- ही- साथ उनका साहित्यसृजन में भी बहुत बड़ा योगदान रहा है। इन शिष्यों तथा इनके द्वारा रचित साहित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है --

किसनदास

किसनदास दरिया साहब के प्रमुख शिष्यों में से एक हैं। इनका जन्म वि.सं. १७४६ माघ शुक्ला ५ को हुआ। इनके पिता का नाम दासाराम तथा माता का नाम महीदेवी था। ये मेघवंशी (मेघवाल ) थे। इनकी जन्म भूमि व साधना स्थली टांकला ( नागौर ) थी। ये बहुत ही त्यागी, संतोषी तथा कोमल प्रवृत्ति के संत माने जाते थे।

कुछ वर्ष तक गार्हस्थ्य जीवन व्यतीत करने के पश्चात् इन्होंने वि.१७७३ वैशाख शुक्ल ११ को दरिया साहब से दीक्षा ली। इनके २१ शिष्य थे। खेड़ापा के संत दयालुदास ने अपनी भक्तमाल में इनके आत्मद्रष्टा १३ शिष्यों का जिक्र किया है, जिसके नाम हैं --

१. हेमदास, २. खेतसी, ३.गोरधनदास, ४. हरिदास ( चाडी), ५. मेघोदास ( चाडी), ६. हरकिशन ७. बुधाराम, ८. लाडूराम, ९. भैरुदास, १०. सांवलदास, ११. टीकूदास, १२. शोभाराम, १३. दूधाराम।

इन शिष्य परंपरा में अनेक साहित्यकार हुए हैं। कुछ प्रमुख संत- साहित्यकारों को इस सारणी के माध्यम से दिखलाया जा रहा है।

कई पीढियों तक यह शिष्य- परंपरा चलती रही।

संत दयालुदास ने किसनदास के बारे में लिखा है कि ये संसार में रहते हुए भी जल में कमल की तरह निर्लिप्त थे तथा घट में ही अघटा ( निराकार परमात्मा ) का प्रकाश देखने वाले सिद्ध पुरुष थे --

भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।
पदम गुलाब स फूल, जनम जग जल सूं न्यारा।
सीपां आस आकास, समंद अप मिलै न खारा।।
प्रगट रामप्रताप, अघट घट भया प्रकासा।
अनुभव अगम उदोत, ब्रह्म परचे तत भासा।।
मारुधर पावन करी, गाँव टूंकले बास जन।
भगत अंश परगट भए, किसनदास महाराज धिन।।

-- भक्तमाल/ छंद ४३७

किसनदास की रचना का एक उदाहरण दिया जा रहा है -

ऐसे जन दरियावजी, किसना मिलिया मोहि।।१।।
बाणी कर काहाणी कही, भगति पिछाणी नांहि।
किसना गुरु बिन ले चल्या स्वारथ नरकां मांहि।।२।।
किसना जग फूल्यों फिरै झूठा सुख की आस।
ऐसों जग में जीवणों ज्यूं पाणी मांहि पतास।।३।।
बेग बुढापो आवसी सुध- बुध जासी छूट।
किसनदास काया नगर जम ले जासी लूट।।४।।
दिवस गमायो भटकतां रात गमाई सोय।
किसनदास इस जीव को भलो कहां से होय।।५।।
कुसंग कदै न कीजिये संत कहत है टेर।
जैसे संगत काग की उड़ती मरी बटेर।।६।।
उज्जल चित उज्जल दसा, मुख का इमृत बैण।
किसनदास वे नित मिलो, रामसनेही सैण।।७।।
दया धरम संतोष सत सील सबूरी सार।
किसनदास या दास गति सहजां मोख दुवार।।८।।
निसरया किस कारणे, करता है, क्या काम।
घर का हुआ न घाट का, धोबी हंदा स्वान।।९।।

इन बाणी साहित्य श्लोक परिमाण लगभग ४००० है। जिनमें ग्रंथ १४, चौपाई ९१४, साखी ६६४, कवित्त १४, चंद्रायण ११, कुण्डलिया १५, हरजस २२, आरती २ हैं। विक्रम सं. १८२५ आषाढ़ ७ को टांकला में इनका निधन हो गया।

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सुखराम

सुखराम दरिया साहब के प्रमुख शिष्यों में हैं। इनका जन्म वि.सं. १७५८ भाद्रपद शुक्ला ७ सोमवार को हरसौर में हुआ। ये जाति से लुहार थे और चाकू- छुरी आदि की शाण ( धार ) बनाने का काम करते थे --

""जन सुखराम जात लौहारा, लिव खुरसांण लगाया।''

-- किसनदास की भक्तमाल

इनकी साधना एवं समाधि स्थल मेड़ता रही है। ये अपने समय के श्रेष्ठ साधक थे। इनकी साधना का परिचय देते हुए संत दयालुदास ने भक्तमाल में इनका उल्लेख इस प्रकार किया है --

गुरु दरियाशाह परस पद सुखराम पीयूष पियपा।
मन मजमस मिट जहर, न्रिम्रल नख चख मुख धारा।।
आरत विरह अदोत, लिगन प्रिय प्राण पियारा।
आसण अचल सधीर, सदा सिंवरण दिशा सूरा।
लिव खुरसांण लगाय, कांल क्रम कीना दूरा।।
जीव सीव मिल अमर पद, जन चरण शरण जीवक जीया।
गुरु दरियाशाह परस, पद सुखराम राम पीयुष पिया।।

-- भक्तमाल, छंद ४३८

कहा जाता है कि इन्होंने मारवाड़ नरेश बख्तसिंह को असाध्य रोग से मुक्त किया था। इनका देहावसान वि. १८२३ फाल्गुन शुक्ल ११ को मेड़ता में हुआ।

इनका बाणी साहित्य- साखी, शब्द, छंद, रेखता में १७ ग्रंथ, ५५ अंग, ७७ चंद्रायण, कुण्डलिया, छप्पय ३३, हरजस ३८, आरती २ । कुल वाणी श्लोक परिणाम ३००० हैं। इनकी रचनाएँ भी उच्च कोटि की थी --

राजा गिणे न बादशाह बूढ़ो गिणे न बात।
सुखिया इण संसार में बड़ो कसाई काल।।१।।
जाया सो ही जायगा सभी काल के गाल।
सुखरामा तिहूं काल में करे हाल बेहाल।।२।।
धोला धणी पठाईया मत कर काला केस।
सुखिया साहिब भेजिया भरण तणा संदेश।।३।।
राजा राणा पातस्या कहा रंक कहा सेट।
सुखिया इण संसार के लारे लागो पेट।।४।।
पेट ने हो तो रामजी काहे करत कलाप।
इकन्त जाय सुखराम कह करते तेरो जाप।।५।।
तन मद धन मद पृथ्वी लागे पाय।
जम की झाट बुरी है राजा सब मद उतर जाय।।६।।




Shahpura, Bhilwara

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Shahpura
Map of Rajasthan showing location of Shahpura
Map of India showing location of Rajasthan
Location of Shahpura
Shahpura
Location of Shahpura
in Rajasthan and India
Country India
State Rajasthan
District(s) Bhilwara
Population 27,698 (2001)
Time zone IST (UTC+5:30)
Area
• Elevation

364 m (1,194 ft)

Coordinates: 25°38′N 74°56′E / 25.63°N 74.93°E / 25.63; 74.93

See Shahpura for disambiguation

Shahpura is a city and a municipality in Bhilwara district in the Indian state of Rajasthan.

Contents


  • 1 Geography
  • 2 Demographics
  • 3 History
  • 4 Economy
  • 5 Ram Snehi
  • 6 References

Geography

Shahpura is located at 25°38′N 74°56′E / 25.63°N 74.93°E / 25.63; 74.93[1]. It has an average elevation of 364 metres (1194 feet).

Demographics

As of 2001 India census[2], Shahpura had a population of 27,698. Males constitute 51% of the population and females 49%. Shahpura has an average literacy rate of 61%, higher than the national average of 59.5%: male literacy is 72%, and female literacy is 50%. In Shahpura, 16% of the population is under 6 years of age.

History

The rulers of the erstwhile chiefship of Shahpura belonged to the Sisodia (Ranawat) clan of Rajputs .

It has its own flag and currency.

Shahpura has produced many freedom fighters. The Barahat Family of Shahpura has produced three main freedom fighters. One of them is Pratap Singh Baharat . sampat singh also a congress LEADER of shahpura

''OUR MILE STONE:

  • BARAHAT FAMILY]
  • SHAHPURA DARBAR

Late.Shree Laxmi Dutt kantia : He born in 1916 and at the age of 16 he start his struggle against English Emperor and Government . He was also founder member of PRAJA MANDAL ANDOLAN He Spent 16 Months in Ajmer Centrel Jail,He Spend his whole life for Service of Mankind ,and in his whole life he never accept any Honour by Government for his secrifice And at September 16,2006 He Passed Away.

Economy

As it was not having rocky land and due to a water shortage, it wasn't attractive for industrialists. One textile factory "sona textile"is running at "BEDSERA" which is running by Behediya family. Other Industries moved away from it to Bhilwara, as it had rocky land structure and rivers around.Later on Bhilwara developed and became a district of Rajasthan State. But Shahpura still has its cultural and heritage identity.

Ram Snehi


The Biggest and most popular Ramdwara of Shahpura.

Shahpura is a place of pilgrimage for the followers of the Ram Snehi sect. Founded in 1804 they have a shrine in the town called Ramdwara. The chief priest there is the head of the sect. Pilgrims from all over the world visit the shrine throughout the year. Shahpura is well known for Ram Snehi's Ramdwara.

  • Pratap Singh Baharat
  • kesari singh barahat
  • jorawar singh barahat
  • Ramdwara
  • Ram Charan Maharaj
  • Gakul lal asawa
  • Shree Laxmi Dutt kantia


Ramdwara (रामद्वारा )

Ramdwara
meaning "the doorway to the Lord RAM", is a place of worship for the people who believe in Ramsnehi. Ramsnehi means "People who love GOD" and is a simple way of worshipping God.

Origin of Ramsnehi

Ramsnehi Sampradaya is a religious tradition originating in 1817 Bikram Samwat in Bhilwara city of Rajashthan by the disciple of Swami Shri Ram Charan Maharaj.

In present time, Ramsnehi Sampradaya has four monasteries. All are in Rajashtan State of India. They are in the following cities:

  1. Banwara, Rajasthan
  2. Sodha, Rajasthan
  3. Bhilwara, Rajasthan
  4. Shahpura, Rajasthan

Swami Ram Charan Maharaj came to Shahpura from Bhilwara and did Tapasya. The place where the cremation was held of Swami Ram Charan Maharaj, a giant RAMDWARA was built. This is now the Chief Ramdwara of Ramsnehi Sampradaya.

This Ramdwara is also called Ram Niwas Dhaam or Ram Niwas Baikunth Dhaam.

Construction



The Shahpura Ramdwara was sponsored by Shahpura contemporary King Amar Singh and his brother Chattra Singh.

The building was built by the building constructor named Jarror Khan and Kushal Khan. This is also a great example of brotherhood of Hindus and Muslims in India.

All the marble stones used in construction is found near the north border of nearby village named Kanti. There is a specialty in all used marble stones that each marble stone having picture and stone marks on them as of Hindi alphabets of the construction of word "Ram" (Lord Ram), Bow, Saint, India Map, Sword, Lion, Monkey and other natural pictures.

The main and base structure of Shahpura Ramdwara is shiny marble octagon shaped pillar which is about 12 feet long. This pillar is situated at the cremation place of Ram Charan Maharaj. This pillar is called Samadhi Stambh (Pillar at Cremation Place).

The floor above the pillar is called Baradari (a kind of summer house with several open marble gates ). A rectangular stone is placed in the center of Baradari which is just over the main pillar.

The Baradari has 108 small pillars which make 84 open gates.

The construction was done in different phases.

Monks of Ramdwara


Monk of Ramdwara.

The Monks of RamSnehi Sampradaya are identical by their dressing and color of dress. After taking oaths, Monks can not return back to their family and must treat the whole world the same. They are supposed to follow all the defined rules strictly.

Way of worship and belief

Ramsnehi believe in the Name of God (Ram) and do not believe in Idolatry. Ramsnehi only follows the some simple and easy defined rules. Ramsnehi just do Darshan of the chair of current Acharya and do respect of all the monks.

Ramsnehi remember the name “Ram” (a name of the Lord). Three main pillars of the ideology are:

  1. Have Name of God in Heart
  2. Have mercy of each living being
  3. Ready to give service to anyone who needs it

Ram Charan Maharaj


Ram Charan Maharaj


Shri Ram Charan Maharaj (Hindi: श्री रामचरन महाराज)( February 24, 1720 - 1799 A.D.) or ( Māgh Shukla 14, 1776 - Vaisakha Krishn 5,1855 Bikram Samwat ) is a founder of unique religious tradition in India called Ram Snehi Sampradaya. He initiated,illustrated and preferred the Nirguna (transcendent) Bhakti over Saguna (Absolute) Bhakti. He initiated and tried to eliminate "Show", Blind Faith, hypocrisy and misled existing in the Hindu Religion and Preferred to worship Name of GOD over GOD, to not get involved in false "Show" activities.






Birth and Childhood of Ram Charan Maharaj


Swami Ram Charan Maharaj born in Sodha on February 24, 1720 A.D.(Māgh Shukla 14, 1776 Bikram Samwat). His father's name was BakhatRam Vijayvergia and her mother's name was Deoji. His parents was living in Banwara village near Malpura, Rajasthan. His Childhood name was "Ram Kishan".
He started having interest to know GOD and Religious things in his childhood. He has got a good knowledge of different language as Hindi, Urdu, Pharsi and Sanskrit during his studies. He studied all main Hindu scripture like Ramayana, Mahabharat and Bhagavad Gita with the help of others.

Working as a Divan of Jaipur

Parents of Ram Charn Maharj has identified his intention towards GOD in his early age but they wanted him to get married and live a normal life. His parents forces him to get married. He got married to Gulab Kanwar . He became Patwari after marriage and worked with intelligence. After some time contemporary King of Jaipur(Amber, India) Jai Singh II of Amber got to know about the good work of Ram Charan and offered him to be Divan of Jaipur of Malpura Branch


Vairagya and Leaving Home Forever

Ram Charan Maharaj started to lose interest in Materialism after his father's death in 1743 A.D. and got to know about the forecast of Bhringi Saint about his destiny. He also saw a dream on same night, in which he saw that one Saint saved him from drowning in a river. Next day, he got permission from his family indirectly to leave Home forever and started his journey towards the way to know GOD and finding a perfect spiritual Guru in 1808 Bikram Samwat.


Finding Spiritual Guru Near Shahpura And Afterward

He started his journey towards South by keep asking the people about the Saint he saw in dream by explaining what he would be look like.At lat he found one saint "Shri Kripa Ram" in Datra village near Shahpura, Bhilwara. He became disciple of Kripa Ram Maharaj and started follow him. He did 9 years of Tapasya by living in the command of Shri Kripa Ram.

During those 9 years, Ram Charan Maharaj has done many miracles which are still commonly known among the local people. He also became very popular for his unique Nirguna Bhakti. He used to visit many places and used to explain his experience and advised people to eliminate "Show", Blind Faith, hypocrisy and misled existing in the Hindu Religion.


Formation or RamSnehi Spiritual Tradition

He came to Bhilwara in 1817 (Bikram Samwat)and selected one lonely place for Tapasya. By this time, he has reached to the extreme level of Tapasya and reaching on the way to Nirvana.

In same year (1817 Bikram Samwat), disciple of Ram Charan Maharaj formed "RamSnehi Sampradaya" ( RamSnehi Spiritual Tradition).

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